रविवार, 15 दिसंबर 2013

पद्म पुराण से : नन्दा गाय की कहानी

रमन्ते योगिनो$नन्ते सत्यानन्दे चिदात्मनि ||
इति रामपदेनासौ परम् ब्रह्माभिधीयते || पद्म पुराण||
-योगी जन उस अनन्त सत्य आनंद चिदात्मा में सदा आनंदमय रमण करते रहते हैं | इसलिए इस परमब्रह्म को "राम" इस शब्द से पुकारा जाता है ( राम इसका नाम है) |
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राम राम वैष्णव जनों!
आजकल पद्म-पुराण पढ़ रहा हूँ | पहले पन्ने से ही भगवान् विष्णु की कथाएँ भरी पड़ी हैं | इसमें विशेषतः पुष्कर आदि तीर्थों और भगवान् के राम और कृष्ण अवतारों की एक से बढ़ कर एक अद्भुत अलौकिक कथाएँ हैं | अभी मैंने पूरी नहीं पढ़ी है, मगर जहाँ तक पढ़ी हैं उसमें से ही कुछ बातें बांटना चाहूँगा |
पुष्कर तीर्थ की बड़ी भरी महिमा गई गयी है | ऐसा मालूम होता है कि पुष्कर तीर्थ प्रयागराज के बाद हिन्दुओं का दूसरा सबसे प्रमुख तीर्थ है | बहुत पहले सतयुग के आरम्भ में ब्रह्मा जी ने पुष्कर क्षेत्र में प्रजा के कल्याण के लिए एक बहुत बड़ा यज्ञ किया था और उसी समय पुष्कर में बहुत सारे तीर्थ स्थान देवताओं और ऋषियों ने स्थापित किया था | सरस्वती नदी भी सतयुग में ही प्रकट हुई थी और पुष्कर क्षेत्र से होकर बहती थी और हिमालय से लेकर पश्चिम समुद्र तक जाती थी |  इस प्रकरण में मैंने एक बहुत ही मार्मिक और बोध कराने वाली कहानी पढ़ी है, जिसमे वर्णन है कि सरस्वती नदी का नाम 'नंदा' कैसे पड़ा | मैं इस कहानी को यहाँ आपके सामने प्रस्तुत करना चाहूँगा |
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एक बार प्रभंजन नाम के एक राजा सरस्वती की घाटी में जंगलों में शिकार खेलने गए | वहाँ उन्होंने अनजाने में एक हिरणी को उसके शावक को दूध पिलाते समय बाण मार दिया | उस हिरणी ने उन्हें मांस खाने वाला जन्तु हो जाने का शाप दे दिया | राजा द्वारा पश्चाताप करने पर उस हिरणी ने यह शाप का मोचन नंदा नाम की एक गाय के द्वारा होना बताया | काल के प्रभाव से राजा प्रभंजन बाघ की योनि को प्राप्त हुए और भयंकर मांस-भक्षी होकर उसी वन में रहने लगे | ऐसे कष्ट भोगते हुए राजा को सौ साल बीत गए |
एक बार नंदा नामकी एक गाय अपने गोष्ठ(झुण्ड) से बिछड़ कर उस बाघ के क्षेत्र में आ गयी | मोटी-तगड़ी गाय को देख कर उस दुष्ट बाघ ने उसे घेर लिया और कहने लगा कि अब तो तुम मेरी भोजन बनोगी | अपने आपको बाघ का शिकार बना देख कर वह गाय बहुत डर गयी और रोने लगी | बाघ ने उससे उसके रोने का कारण पूछा तो उनसे बताया - "मैंने अभी अभी अपने पहले बछड़े को जन्म दिया है | वह अभी छोटा है और सिर्फ दूध ही पीता है | उसे अच्छे-बुरे का कोई ज्ञान नहीं है | उसी को याद करके रो रही हूँ | मुझे जाने दो, अपने बच्चे को अच्छी शिक्षा देकर, खिला-पिला कर और अपने सखियों के पास सौंप कर मैं वापस तुम्हारे पास आ जाऊँगी | फिर मुझे खा लेना |"
इस बात पर बाघ राजी न हुआ तो उस नन्दा गाय ने बाघ को तरह तरह से शपथ द्वारा अपने वचन का भरोसा दिलाया | बाघ उसके वचन पर मान गया और उस गाय को जाने दिया |
वह नन्दा गाय वापस अपने गोष्ठ में आई और अपने बछड़े और सखियों को सारी घटना की जानकारी दी | उसकी सखियों ने उसे वापस जाने से रोकने की बहुत कोशिश की, मगर उस गाय ने अपने वचन का पालन करना ही तय किया | उसने अनेक प्रकार से अपने बछड़े को शिक्षा दी और फिर नियत समय पर अपने गोष्ठ, गोपाल, गौओं और प्यारे बछड़े को छोड़ कर वचन निभाने के लिए उस प्रभंजन बाघ के पास वापस आ गयी | अपने माँ के विरह से विचलित उसका बछड़ा भी उसका पीछा करता हुआ वहाँ आ पहुँचा और अपनी माँ और उस भयंकर बाघ के बीच में खड़ा हो गया |
अपने पुत्र को बीच में आया देख कर नंदा ने कहा - "मृगराज! सत्य के पालन करते हुए मैं आ गयी हूँ | मेरी मांस से अपना पेट भरो |"
बाघ तो सोच रहा था कि अपनी जान बचा कर भागी हुई यह गाय अब कभी वापस नहीं आएगी | मगर उसे अपने वचन और सत्य-धर्म पर अडिग देख कर उसे बड़ा आश्चर्य हुआ | उसने उस गाय को मारने का निश्चय त्याग दिया और उसे अपनी बहन और बछड़े को अपना भांजा बना लिया |
फिर उस बाघ ने उस आश्चर्यजनक धर्म में स्थित गाय से उसका नाम पूछा | गाय ने अपना नाम "नन्दा" बताया | नंदा नाम सुनते ही बाघ को अपने पिछले कर्म का पूरा स्मरण हो गया | उस बाघ ने नंदा गाय से धर्म के विषय में प्रश्न किया कि वह ऐसा क्या करे कि उसकी इस बाघ के पापमय सरूप से मुक्ति हो जाए | तब नन्दा ने "अहिंसा" रुपी धर्म का उपदेश दिया | इस क्रम में एक बहुत ही सुन्दर श्लोक आया है -

यथा हस्तिपदे ह्यन्यत्पदं सर्वम् प्रलीयते |
सर्वे धर्मास्तथा व्याघ्र प्रतीयन्ते हि अहिंसया ||
-हे बाघ! जैसे हाथी के पदचिह्न में सभी प्राणियों के पदचिह्न समा जाते हैं, उसी तरह अहिंसा के द्वारा सभी धर्मं प्राप्त हो जाते हैं |
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नन्दा गाय के सत्संग के प्रभाव से राजा प्रभंजन का उस दारुण मांसाहार से छुटकारा हो गया | उसी समय वहाँ पर महान धर्ममय गाय नन्दा का दर्शन करने के लिए स्वयं 'धर्मराज' प्रकट हुए और नन्दा की धर्म-निष्ठा से प्रसन्न होकर उसे दो वरदान प्रदान किये | पहले वर के फलस्वरूप वह गाय अपने बछड़े सहित उत्तम स्वर्गलोक को चली गयी | दुसरे वरदान में उस क्षेत्र को धर्ममय तीर्थ स्थान बना दिया गया और उस इलाके में सरस्वती नदी का नाम 'नन्दा' पड़ गया |

इस कथा से मुझे दो तीन महत्वपूर्ण शिक्षाएँ मिली हैं | एक तो सत्य और अहिंसा सर्वश्रेष्ठ धर्म हैं | दुसरे परिवार के प्रेम कोई जवाब नहीं है | तीसरा सत्संग के प्रभाव से पापी भी अपने पाप से छूट सकता है | और चौथा गाय सचमुच बड़ी धर्ममय होती हैं | मैंने तो कभी गाय को अधर्ममय व्यवहार करते नहीं देखा | सचमे वो हमारी माँ ही हैं जो अपने धर्म से हमारा पालन करती रहती हैं |
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खैर! आशा है आपको यह कहानी पसंद आई होगी | आगे और भी बहुत सी कहानियाँ हैं जो बाँटी जा सकती हैं | जैसे 'ब्राह्मण और उसके पाँच पुत्रों की कथा', 'सत्संग से प्रेतों की मुक्ति', 'नरोत्तम ब्राहमण और पाँच धर्मों की कथा' और 'कृकल वैश्य और उसकी प्रिय पत्नी सुकला की कथा' इत्यादि इत्यादि | इन कथाओं की बातें बाद में करूँगा | आज के लिए इतना ही, तब तक आपको अपने आशीर्वाद से मुझे अनुगृहित करिए |
जय श्री राम !
सीता राम सीता राम .

प्रणाम

सभी भगवद्भक्तों को कोटिशः दंडवत !
यह मेरा पहला ब्लॉग है | लेखन की कला आती नहीं; शब्दों पर कोई अधिकार नहीं है; भाषा भी कोई प्रांजल नहीं है | ऐसे ही जैसे मक्खी अपनी औकात भर आकाश में उड़ लेती है, श्री रामचंद्र जी के यशोगान में भागी बन लेना चाहता हूँ | यद्यपि यह उपमा भी मैंने गोस्वामी जी से उधार ली है, मैं तो इससे भी कुछ छोटा कहना चाहता था | मगर छंद-अलंकार में अपनी हालत थोड़ी कच्ची है |
राम जी की महिमा गाने का असली हक़ तो उनके किसी भक्त को ही है | लोमश, वाल्मीकि, व्यास, वशिष्ठ, पराशर, भरद्वाज, कुम्भज आदि प्राचीन ऋषि; विष्णुस्वामी, यमुनाचार्य, रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, कम्बन, कृत्तिवास, तुलसीदास, रूप गोस्वामी, सनातन गोस्वामी, जीव गोस्वामी, सूरदास, नरोत्तम ठाकुर, मुरारी गुप्त, नरसी मेहता, मीराबाई, कबीर, रसखान, मनीरामदासजी आदि आधुनिक महात्माओं इत्यादि का तो सिर्फ नाम ही लिया जा सकता है | मैं इन सब के चरण कमलों के धुल कण के बराबर नहीं हूँ | फिर भी अपने ही हित के लिए राम जी की महिमा गाने की हिम्मत कर रहा हूँ |
जी हाँ! हर जगह, हर संत से, हर सुहृद से, हर सच्चे मित्र से और गुरु से यही सुना है कि हमें सर्वदा सर्वथा श्री भगवान् के यशोगान में ही मन लगाना चाहिए | हमारे उद्धार का एकमात्र यही उपाय है | इसी लोभ से अधिकारी नहीं होते हुए भी साहस कर रहा हूँ |
और उससे भी अधिक साहस कर रहा हूँ अपने इस बाल-क्रीडा को सच्चा 'राम-गुण-गान' समझ कर इस ब्लॉग पर आप सब से बांटने का | बुरा मत मानिएगा |
इस में मेरा स्वयं को ज्ञानी, कवि या भक्त साबित करने और राम-यश के व्याज से अपना यश प्राप्त करने का कोई इरादा नहीं है | असल में जिस प्रकार के भौतिक-परिस्थितियों में रह रहा हूँ, वहाँ राम-स्नेही जल्दी मिल नहीं रहे हैं | या तो मुझे अभागा और अनधिकारी जान कर मुझसे छिप रहे हैं; या फिर मैं सच में अपने को राम-भक्त मानने का पाखण्डमय मिथ्या-अहंकार कर रहा हूँ | कारण जो भी हो, मैंने ये सोचा है कि इस ब्लॉग पर 'राम' नाम के व्याज से थोड़ा विज्ञापन कर लूँगा तो कोई न कोई करुणामय वैष्णव जरूर मुझ पर कृपा कर के मुझे अपनी शरण में ले लेंगे | इससे अधिक इस ब्लॉग पर गंभीर ज्ञानमय और गूढ़ भक्तिमय बातें लिख कर वाहवाही लूटने का कोई इरादा नहीं है | अगर मेरे लिखे हुए में कुछ भी भला जान पड़े तो वह सचमुच श्रीराम जी की महिमा और मेरे गुरुजनों की कृपा ही है | बाकी सब तो बेकार की वाग्वैखरी ही होगी |
अस्तु! समस्त हरिभक्तिसमाज से कृपा की आकांक्षा के साथ -
जय श्री राम!